**बापू की प्रसंगिकता **

रिपोर्ट--महेश कुमार गुप्त



2 अक्टूबर को हम अपने प्यारे बापू यानी महात्मा गांधी जी की 150वीं जयंती मनायी।यदि बापू के पूरे जीवन पर गौर करें, तो उनका संपूर्ण जीवन सत्य अहिंसा से युक्त मूल्यों,  रोजमर्रा की आदत- व्यवहार आदि कुछ ना कुछ संदेश देते हैं, जो आज भी संपूर्ण समाज के लिए बहुत ही प्रेरक हैं। तथा बापू का जीवन दर्शन स्वयं में एक संसार है ।



 

महात्मा गांधी जी के विचारों की प्रासंगिकता को समझने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना जरूरी है । पहला, जो गांधी जी ने भी कहा था, "मैंने सत्याग्रह के विज्ञान को पूरी तरह से स्थापित नहीं किया। इसमें परिष्कार और सुधार की बहुत गुंजाइश है। उन्होंने कहा था, "सत्याग्रह इन साइंस इन द मेकिंग।"  गांधी जी ने जितने भी प्रयोग किए वह "लैबोरेट्री एक्सपेरिमेंट" थे। जिन्हें अब बड़े पैमाने पर आजमाने की जरूरत है। इसके लिए गांधी के सत्याग्रह की  परंपराएं ही काफी नहीं है, उनमें वर्तमान दशाओं के अनुसार परिवर्तन की भी करने होंगे।

 


 

दूसरा यह समझना होगा कि सत्याग्रह और अहिंसा स्वयं में साधन भी हैं। और साध्य जिनकी तत्कालीन और दीर्घकालीन उपयोगिता है। तुरंत इस्तेमाल के लिए "सत्याग्रही दृष्टिकोण" अंतर्द्वंद्व  को दूर करने के लिए उपयोगी हो सकता है। सत्याग्रह का हथियार व्यवस्था की बुराइयों और विकृतियों का असर कम करने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

 तीसरा गांधी जी के प्रयोगों प्रयोगों को परिस्थितियों के अनुसार दोहराया जा सकता है।

 


 

सत्याग्रह एक प्रयास है। एक प्रक्रिया है। जिसके असरदार होने में समय लगता है। गांधीजी में भी माना था कि अहिंसक संघर्ष के लिए शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक तरीके से बुराइयों से लड़ने तथा शोषण और सत्ता के विकेंद्रीकरण के बुरे नतीजों से जूझने के लिए प्रशिक्षण की जरूरत होती है। उसी तरह जैसे हिंसक लड़ाई के लिए सिपाहियों को प्रशिक्षित किया जाता है। यह प्रशिक्षण थोड़ा बहुत तो शिविरों और संस्थाओं में दिया जाता है, लेकिन रोजमर्रा के अन्याय के विरोध में किए जाने वाले छोटे और बड़े संघर्ष सत्याग्रह के स्कूल और महाविद्यालय है। ऐसे संघर्ष नए समाज को बनाने की जमीन तैयार करते हैं। और इन्हीं प्रयासों के बीच से नेतृत्व भी निकलता है। 

 


 

सत्याग्रह की हजारों छोटी बड़ी लड़ाइयां चाहे वह असफल हो या सफल, नया समाज बनाने की दिशा में एक सार्थक कोशिश है। आतंक   के विरुद्ध, विषमता बढ़ाने के वाली  अनीति के विरुद्ध, चरखे के प्रतीक वाले स्वालंबन हेतु, नव साम्राज्यवाद के विरुद्ध, स्वदेशी के पक्ष में, उपभोक्तावाद के विरुद्ध, गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध, सर्वोदय के लिए, "पोस्ट ट्रुथ" युग में सत्य का साथ देने हेतु, "धर्म हीन" हो चुकी राजनीति को धर्म की तरफ उन्मुख करने के लिए और धरती को बचाने के लिए जिसे हमारे लालच में नष्ट होने के कगार पर ला खड़ा किया है। गांधी जी के विचारों और उनके सत्याग्रह की जरूरत अनंत काल तक बनी रहेगी।

 


 

आज आतंकवाद परमाणु युद्ध के खतरे, इकोलॉजिकल क्षरण, जलवायु में गुणात्मक बदलाव, अन्याय पूर्ण और तेजी से फैलता भूमंडलीकरण, उदारवादी आर्थिक नीतियों से निकलने वाले नतीजे, बढ़ती हुई गरीबी गैर बराबरी और प्रजातंत्रात्मक राज्य प्रणालियों में भी नागरिकों के अधिकारों का सिमटना आदि  बड़े सवाल दुनिया के सामने है।

 


 

 हम जरा से संवेदनशील हो जाए तो देख सकते हैं कि कैसे मानवीय नैतिकता के अभाव में भय, भूख, गरीबी, बेकारी को बढ़त मिल रही है। किसान आत्म हत्याएं कर रहे  है। भोजन कीटनाशकों व रसायनों के दुष्प्रभाव में  आकर जहरीला हुआ जा रहा है। पानी की भी यही स्थिति है। जंगल तेजी से गायब हो रहे हैं और उतनी ही तेजी से मौसम परिवर्तित हो रहा है व लगातार कहर बरपा रहा है। ऐसे में गांधीजी का याद आना स्वाभाविक हो जाता है। उनकी बात गूंजने लगती है कि "यह धरती हमारी जरूरतें पूरा कर सकती है  हमारे लालच को नहीं" और फिर हमारी आंखों के सामने से  धुंध हटती है। हम गांव को कैसे मजबूत करें, वंदना शिव, मोहन धारिया आदि के काम को याद करते हैं। तब हम यह भी सोचने के लिए मजबूर होते हैं कि नफरत हमें कहां ले जाएगी।

 


 

हम विरोधी विचारों वाले लोगों को नष्ट करने में जुट जाएंगे तो यह सिलसिला कभी ना कभी हमें ही नष्ट कर देगा। ऐसे में सामुदायिक सहयोग सहकारिता व सहनशीलता जैसे उन सद्गुणों की तरफ हमें देखना ही पड़ेगा जो इस धरती को रहने के लिए अच्छी बनाने में मदद करेंगे। साथ ही हमें अन्याय का, जड़ता का विरोध भी करना होगा। ऐसा करके ही हम गांधी के विचारों से रूबरू होंगे और तभी हमारे भीतर का गांधी जागृत होगा। जो मानव के लिए बुराई के विरोध में निहित होता है।

 


 

हम इस तथ्य से परिचित हैं कि लिंचिंग जैसी समस्या के अंतर्गत संप्रदायिकता के गहराते दंश के मध्य हमें ऐसे नायकों के जीवन उदाहरण का ही सहारा है। गांधी जी गौ सेवा के प्रति समर्पित तो थे, लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई से कहा था कि "मैं दोनों समुदायों के मध्य सबसे शक्तिशाली जोड़ बनाने का प्रयास कर रहा हूं। अगर इस जोड़ को मजबूत करने के लिए हमें अपना खून भी देना पड़े तो यह महंगा सौदा नहीं है।" उन्होंने आगे कहा था कि "यह करने से पहले मुसलमानों के लिए यह सिद्ध करना होगा कि मैं उनसे उतना ही प्रेम करता हूं जितना प्रेम मैं हिंदुओं से करता हूं मेरा धर्म मुझे सबसे एक समान प्रेम करना सीख लाता है।"

 


 

गांधीजी के लिए स्वच्छता शब्द बहुस्तरीय  अर्थ रखता था। एक तरफ वह स्वच्छता के सबसे बुनियादी अर्थ "स्वस्थ जीवन" के लिए सफाई के महत्व के साथ खड़े थे। तो दूसरी तरफ वे "अंतर्मन की शुद्धता" के भी पक्षधर थे। स्वच्छता के मूल्य के सहारे गांधी जी भारतीय समाज में गहरी धसी अस्पृश्यता के मर्ज की दवा भी खोज रहे थे। तो साथ ही वे सभ्यता गत सर्वोच्चता के दावे को भी चुनौती दे रहे थे, जिसमें गोरे स्वछ होने के कारण स्वीकार्य और काले अस्वछ होने के कारण त्याच्य माने जाते थे।

 


 

गांधी जी ने भारतीय सभ्यता की समन्वय कारी विलक्षणता को बढ़ावा दिया तथा राष्ट्रीय आंदोलन में वर्ग संघर्ष की बजाय वर्ग समन्वय को प्राथमिकता दी। उन्होंने पश्चिमी सेकुलर वाद के विरुद्ध "सर्वधर्म समभाव" की बात कही।

 गांधीजी के लिए कुछ भी कह पाना बहुत ही  सीमित होगा बस इसके-----

 

"चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटी अब उसी ओर। गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गए कोटी द्रग उसी ओर।

युग- परिवर्तक, युग-संस्थापक, युग- संचालक हे युगाधार।

 युग- निर्माता, युग-मूर्ति,तुम्हें युग युग तक युग का नमस्कार।।


 


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