2019 की चुनावी जंग में बहन भाई ने दी टक्कर लेकिन परिणाम आये सोच से भी परे...
खास रिपोर्ट--- रज़िया बानो खान 

 


 

19वी लोकसभा का चुनाव मोदी बनाम सम्पूर्ण विपक्ष कहना इसलिए गलत होगा क्योंकि विपक्ष पूरा एक साथ चुनावी जंग में मोदी के खिलाफ एक जुट नही था। लेकिन हाँ विपक्ष के दो ऐसे चेहरे ज़रूर थे जो सीधे मोदी को टक्कर देने में कभी पीछे नहीं रहे ।टक्कर भी ऐसी की मोदी अपने चुनावी भाषणों में उनका जिक्र करना नही भूलते थे और वो भी मोदी के सवालों का पूरे जोश के साथ जवाब भी दिया करते थे।उनकी यही अदायगी देश की जनता को भी पसंद आती थी तभी उनकी रैलियों भी भारी भीड़ भी जुटा करती थी ये बात अलग है कि वो भीड़ उनकी जीत की वोट में तब्दील नही हो पाई।

 

इतनी बातो से आप समझ ही गए होंगे कि हम किन दो चेहरों की बात कर रहे हैं,.....जिनका सीधा मुकाबला मोदी से था,...... जी सही समझा आपने हम कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी की ही बात कर रहे हैं।एक ओर जहां मोदी भाजपा के स्टार प्रचारक के तौर पर ताड़तोड़ जनसभाएं और रैलियां करते नज़र आ रहे थे वही दूसरी तरफ राहुल और प्रियंका भी उन्हें टक्कर देने में व्यस्त थे।

 

अब अगर हम 2014 के बाद बाद के एनडीए के कार्यकाल पे नज़र डालें तो मोदी ने सबका साथ सबका विकास का अपना नारा ना सिर्फ बुलंद किया बल्कि उसको मोकामा तक भी पहुंचाया उन्होंने उज्ज्वला योजना के तहत गरीब महिलाओं को सीधे तौर पर लाभ पहुंचाया प्राधानमंत्री आवास योजना के तहत गरीबों को अपनी छत देने का काम किया और तो और मुद्रा लोन दे कर कई बेरोजगारो को रोजगार में लगाया ऐसी ही तमाम योजनाओ से लाभान्वित होए लोग ज़ाहिर तौर पर उन्हें सत्ता से बेदखल नही देख सकते थे तो उनको वोट किया।

लेकिन अब सवाल ये है कि राहुल और प्रियंका की इतनी कड़ी मेहनत आखिर क्यों बर्बाद हुई क्यों राहुल का पुराना किला छीन लिया गया और क्यों कांग्रेस पार्टी सिफर पर जाने को मजबूर हो गई? तो इसका जवाब वैसे तो तलाशना आसान नही है लेकिन हां इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि राहुल गांधी ने कभी जनता से सीधे संपर्क नही साधा सिवाय चुनाव के और ना ही उन्होंने कभी जनता का मूड पढ़ने का प्रयास किया ऐसा लगता है और कुछ यही कारण प्रियंका गांधी के साथ भी दिखाई पड़ता है क्योंकि अगर प्रियंका गांधी शुरआत से पार्टी के साथ जुड़ कर काम करती जनता के बीच जाती तो रिजल्ट कुछ और हो सकता था क्योंकि उनका क्रेज़ जनता में कितना है ये चुनावी समर में खूब दिखाई भी दिया लेकिन यहां ये समझना भी ज़रूरी है कि भीड़ ने आपको भीड़ में ही देखा सुना उससे पहले आप उनसे सीधे संपर्क में क्यों नही आये तो देखने वाली बात है।

 

लेकिन अभी भी ज़्यादा देर नही हुई लोकतांत्रिक देश मे चुनावी प्रक्रिया चलती रहती है अभी भी समय है जनता से मिलिए उनके दुख दर्द को समझिए और वो भरोसा दीजिये जिससे उसे लगे के आप भी ज़मीनी नेता हैं ना के एक राजनीतिक परिवार की विरासत।